दरिया और मैं
इक दरिया सी है ये जिंदगी,
समतल ऊबड़-खाबड़ घाटियों में बही जा रही है।
इठलाती-बलखाती-पहाड़ों से टकराती,
अल्हड़ मस्ती में बस चली जा रही है।।
ना अपनों की चाहत-ना गैरों की मुरव्वत,
दरिया को कभी नसीब होता है।
दरिया तो बस दरिया है,
जिसे जमाने भर का बोझ ढोना होता है।।
ना फिक्र है हमारी जमाने को,
ना हमें इसकी चिंता सता रही है।
उतार-चढ़ाव की खुशियाँ और दर्द,
बस बहते जाने का गीत गुनगुना रही हैं।।
तो क्या हुआ जो कभी हम ना रहे,
जमाना आगे बढ़ता ही जाएगा।
ना आज दरिया अपने लिए फिक्रमंद है,
ना कल कोई हमारे लिए आँसू बहाएगा।।
©RKP